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एक पुरानी हवेली... 

Inspired by Work of Hitchcock / 7 March 2018

कोंकण के तटीय इलाके में कुछ सालों पहले रियल इस्टेट के व्यवसाय ने बड़ा जोर पकड़ लिया था.. इस कहानी के बिज तब के है.. १९७५ - ८० की बात रही होगी.. कोंकण का एक छोटासा गांव, सावंतवाड़ी, दिन ब दिन एक प्रगतिशील शहर की तरह विकसित हो रहा था.. मुम्बई में बढ़ रहा कपडा उद्योग इसका प्रमुख कारण था.. गांव के बच्चे, पढ़े लिखे जवान और कुछ मिडल एज्ड पुरुष भी काम के तलाश में शहर की ओर भाग रहे थे.. हर घर में पैसा आ रहा था.. साथ ही मुम्बई जैसे अलग अलग शौक भी सावंतवाड़ी में अपना ठिकाना बना रहे थे.. सावंतवाडी का रूप बदल रहा था, वैसे बाहर के कई सारे लोग इस छोटे से शहर नुमा गांव में अपना रिटायरमेंट होम या सेकेंड होम खोजने के लिए आ रहे थे..

 

‘कुडाळकर किराणा भांडार ’ वैसे तो रोजमर्रा का सामन बेचनेवाली छोटीसी दूकान थी.. फिर उन्होंने एस. टी. डी. बूथ खोला और अब बाहर से जगह ढूंढते आने वाले लोगों के चलते उन्होंने दलाली का काम भी शुरू कर दिया था.. वो जुलाई की एक उदास दोपहर थी.. जून से ही रिअल इस्टेट में काफी गिरावट चल रही थी.. इस महीने तो गलती से ही कोई ग्राहक आने की संभावना थी.. महेश आज जल्दी दुकान बंद करने की सोच ही रहा था तभी एक भूरे रंग की फ़ियाट उसके दूकान के सामने आकर खड़ी हो गयी.. महेश ने ध्यान से देखा.. ये गाडी जानी पहचानी नहीं थी.. महेश इस इलाके की हर गाडी को पहचानता था.. ये शायद पूना - मुम्बई से आया कोई ग्राहक था.. महेश ने अपने नौकर को चाय लाने भेजा तभी गाडी का दरवाजा खोल वो गाडी से उतरा..

 

वो एक ४०-४५ साल का आदमी था.. लम्बे कद वाला.. उसने एक नीले रंग की चौकड़ीवाली शर्ट पहनी थी और क्रीम रंग की बेल बॉटम.. उसके बदन को देख कर लग रहा था के वो पहले काफी मेहनत वाला काम करता रहा होगा.. पर उसके चेहरे पर सादगी थी.. उसके सुनहरे चश्मे से दिखती उसकी काली आंखे काफी शांत थी.. वो दूकान में आया तो उसने बड़ी जोशीली हंसी के साथ महेशसे हाथ मिलाया.. उसका व्यक्तित्व काफी सुखद था.. उसके और महेश के बिच यहां वहां की काफी बाते हुई और चाय खत्म कर के वो अपनी असली बात पर आया.. उसका नाम था ‘पुनीत मेहरा’.. वो पूना में रहता था.. किसी काम से यहां आया था.. शहर में घूमते हुए उसकी नजर एक पुरानी हवेली पर पड़ी थी.. ‘वाडा’ मराठी में जिसे वाडा कहते है.. हवेली पुरानी थी.. पर आज भी उसमे एक अमीरी का ठाठ था.. हवेली के बाहर हवेली बेचनी है (वाडा विकणे आहे) ऐसा बोर्ड लगा था.. लोगों से पूछा तो उन्होंने सलाह दी के सीधा हवेली में न जाए.. उससे पहले महेश से आकर मिल ले..

 

महेश के चेहरे का नूर उस हवेली का नाम सुनकर उतर गया था.. पर फिर भी उसने थोड़ासा जोश खुद में भर कर पुनीत से बात आगे बढ़ाई..

‘वो हवेली क्यों.. उससे कई बेहतरीन घर दिखाता हूँ आपको.. सावंतवाडीमें कई नए बंगले बने है.. एक से बढ़कर..’

‘मुछे नए बंगलों में कोई दिलचस्पी नहीं है.. पुरानी वास्तुकला से मुझे प्यार है.. वो वाडा १०० साल पुराना तो होगा ही ना?’

महेश को क्या बोले समझ नहीं आ रहा था..

‘पुराना है.. उसकी देखभाल बिल्कुल की नहीं गयी है.. बाहर से खूबसूरत दीखता है पर अंदर से… बारिश में पूरा वाड़ा पानी से भर जाता है मानो.. हर जगह से छत टपकती है.. माड़ी तो सड़ चुकी है बारिश में.. और पीछे की दीवार तो..’

‘इतना सहन कर के भी अब तक खड़ा है.. ठीक करवा लेंगे.. अब ऐसी इमारते बनती कहाँ है?’

‘आपकी बात सही है.. ठीक करने को हो भी सकता है.. पर उस वाडे की मालकिन जो कीमत मांग रही है उसके बाद उस वाडे पर इतना खर्चा करना बिल्कुल घाटे का सौदा होगा..’

‘इतना क्या मांग रही है मालकिन?’ - पुनीत

‘७५ हजार.. देखा जाए तो उस वाडे की कीमत दस हजार भी नहीं होगी.. अगर ठीक ठाक होता भी तो ज्यादा से ज्यादा पंधरा.. पर उस औरत का दिमाग खराब हो गया है.. उसका बेटा शहर में काम करता था.. कुछ साल पहले गुजर गया.. उसके बाद शायद पागल हो गयी है.. पचहत्तर हजार से एक रुपया कम नही करेगी..’

‘मैं बात करूँ उससे.. शायद कुछ बात बन जाए..’

‘पुनीत जी.. वो औरत आपको दो मिनिट भी खड़ा नहीं करेगी अगर उसे ये पता चल गया के आप पैसे कम करवाने की बात करने आए हो..’

‘कोशिश कर के देखते है.. कोई रास्ता निकल आए.. मेरा हमेशा से सपना था ऐसे वाडे में रहने का.. बात तो कर के देखता हूँ..’

महेश को पता था इसका कुछ फायदा होने वाला नहीं है.. फिर भी उसने पुनीत को जाने दिया..

 

वाडे का दरवाजा खटखटाने के बाद अंदर से आवाज आने में काफी समय लगा.. पुनीत को बताया गया था के पुरे हवेली में उसकी मालकिन ‘नाइक आजी’ अकेली ही रहती है.. बेटे के जाने के बाद उसने खुद को सब से अलग थलग सा कर दिया है.. ज्यादा घुलती मिलती नहीं.. इसलिए लोगों का भी उसके घर जाना वैसे काम हो गया है.. पुनीतने एकबार फिरसे दरवाजा खटखटाया तब अंदर से आवाज आयी..

‘येतेय.. कोण आलंय मेलं दुपारी..’

दरवाजा खुला और पुनीतने पहली बार नाइक आजी को देखा.. कुछ बिखरे से सफेद बाल.. चहरे पर झुर्रिया.. सादी सी साडी पहनी हुई थी उसने.. चेहरे पर एक प्रकार के त्रासिक भाव थे.. शायद पुनीत ने आकर उसकी नींद खराब कर दी थी..

‘काय पाहीजेय?’

उसने मराठी में पूछा.. पुनीत कुछ गड़बड़ा गया.. उसे मराठी समझ तो आती थी पर बोल नहीं पाता था ठीक से..

‘मला.. वो.. आपको हिंदी आती है..’

नाईक आजी बिना कुछ जवाब दिए उसको कुछ पल देखती रही.. फिर उसने हां में सर हिलाया.. पुनीत के जान में जान आ गयी..

‘मैं पूना से आया हु..’

‘तो क्या करू?’

‘नहीं.. काफी साल पहले सावंतवाड़ी आया था तब सोचा था.. पैसे इकठ्ठा कर के बुढापे में यहीं पर बस जाऊँगा.. इसीलिए यहां पर’

‘ए बाबा.. मुद्दे की बात करो.. तुम्हारी जीवनी सुनने के लिए समय नहीं है मेरे पास..’

‘वो.. इस वाडे के बारे में बात करनी थी..’ नाइक आजी उसे देखने लगी.. ‘वाडा खरीदना है.. महेशने बोला के आप..’

अचानक दरवाजे से हटते हुए आजी एक तरफ हो गयी और पुनीत के तरफ देखते हुए बोली..

‘आओ.. अंदर आओ..’

वाडा अंदर से काफी बड़ा था.. पर महेश के कहने के मुताबिक उसकी देखभाल ठीक से की नहीं गयी थी ये दिख रहा था.. वो वाडा निहार रहा था तभी आजी दरवाजा बंद कर उसके पास आकर खड़ी हो गयी..

‘ये कब बना..' पुनीत अपना सवाल पूरा भी नहीं कर पाया था तभी आजी ने मुद्दे की बात शुरू कर दी..

‘कीमत तो बताई होगी ना उस महेश ने..’

‘हां.. बताई तो है.. पर आपको नहीं लगता पचहत्तर हजार कुछ..’

‘कीमत बताई है तो ये भी बताया होगा के मोलभाव नहीं होगा.. पचहत्तर हजार से एक रुपया भी कम नहीं होगा.. जाओ यहां से.. उगाच माझ्या झोपेच खोबरं..’

‘पर आप ही एकबार सोचिए.. दस हजार से ज्यादा कीमत नहीं होगी इस वाडे की.. और इस हालत को देखते हुए..’

‘मेरा वाड़ा, मेरी कीमत, लेना है तो लो.. मेरा सर मत खाओ.. चलो निकलो.. निकलो यहां से..’

आजी पुनीत को पकड़े जबरन ही उसे बाहर निकालने लगी तभी पुनीत ने उसे रुकाया..

‘ठीक है.. ठीक है.. पचहत्तर हजार मुझे मंजूर है..’

आजी ने पुनीत के तरफ आश्चर्य से देखा.. उसके आँखों में एक अजीब सी चमक थी.. इतने देर से गुस्से में उकताई सी लगने वाली नाइक आजी मुस्कुराई..

‘पक्का ना.. बादमे पलटेगा तो नहीं?’

‘नहीं आजी.. चाहिए तो महेश को बुलवा के पेपर बनवा ले..’

‘रुक जाओ.. कोकम सरबत देती हूँ..’

 

आजीने ठन्डे पानी में बना कोकम शर्बत का ग्लास पुनीत के हाथों में थमाया तब वो अंदर के कमरे में बैठे थे.. शर्बत काफी ठंडा था..

‘फ्रिज है क्या आपके यहां?’ पुनीत को यकीन नहीं हो रहा था.. आजी उसके सामने बैठते हुए बोली..

‘हां.. मेरे बेटे ने लिया था.. उसे बड़ा शौक था नई नई चीजों का.. और भी बहुत कुछ लेता पर..’ आजी बोलते बोलते रुक गयी और अचानक उसने अलग ही बात छेड़ दी..

१०० साल पुराने इस वाडे के बारे में वो बताने लगी.. कब बना, कैसे बना.. वो बहु बनकर इस वाडे में आई थी तो कैसे सारा वाडा सजा हुआ था.. उनके पति के घराने का हर सदस्य इसी वाडे में जन्मा था.. पर उसका बेटा ‘विश्वामित्र’ अस्पताल में पैदा हुआ था.. उसकी जान था उसका बेटा.. पति के गुजरने के बाद तो बस वो और उसका बेटा ऐसे दो लोग ही तो थे इस वाडे में.. अच्छी कट रही थी जिंदगी.. फिर उसके बेटे के दिमाग में मुम्बई जाने का फितूर आया और सब बर्बाद हो गया.. आजी ये कहानी बोलते बोलते चुप हो गयी.. पुनीत मानो अब कहानी में खो चूका था.. उसे और जानना था..

‘फिर आगे क्या हुआ’

आजीने पुनीत के तरफ देखा और कहानी आगे बढाई..

‘विश्वामित्र मुम्बई गया और कुछ महीने तो अच्छेसे बिते.. पर फिर कुछ अजीब सी बाते होने लगी.. विश्वामित्र की आमदनी अचानक कुछ ज्यादाहि बढ़ने लगी.. वो हर बार मुम्बई से आता तो साथ में कई सारे रूपये ले आता.. उसने बाइक खरीद ली.. घर में फ्रिज और टीव्ही भी ले आया.. वो बताता नहीं था इतने पैसे आ कहाँ से रहे थे.. हमेशा बात को टालता.. और फिर एक दिन वहीँ हुआ जिसका मुझे डर था.. वो गायब हो गया.. छह महीने के लिए.. कोई पता नहीं.. फोन नहीं.. खत नहीं.. कुछ नहीं..’

‘कहाँ गया था? लौट भी या..’

‘छह महीने बाद लौटा ना.. बेहाल डरा हुआ.. साथ में एक बड़ा सा बैग था.. हमेशा उस बैग को सम्हाले रहता था.. नजरों से कभी दूर नहीं किया उस बैग को.. एक दिन मैं बाहर गयी थी.. वापस लौटी तो बैग गायब थी..’

‘मतलब?’

‘पता नहीं.. शायद उसने छिपा दी होगी कही.. इसी वाडे में.. उस रात को मुझे देर रात तक नींद नहीं आयी.. जब आँख लगी तो एक जोरदार आवाज से मेरी नींद टूटी.. आवाज विश्वामित्र के कमरे से आ रही थी.. पहली मंजिल पर था उसका कमरा.. मैं ऊपर गयी तो उसके साथ कमरे में कोई था.. मैंने आवाज सुनी उसकी.. बैग के बारे में पूछ रहा था.. विश्वामित्र उसे कुछ बताने नहीं वाला था.. मैं दरवाजा खोल कर अंदर जाने ही वाली थी तभी गोली चली.. मैंने डर के मारे दरवाजा खोला.. तब विश्वामित्र जमीन पर पड़ा था.. खून में लथपथ.. मेरा बेटा.. वो राक्षस भाग गया था उसे मार कर.. मर गया मेरा बेटा..’

‘ऐसा क्या था उस बैग में?’

‘पता नहीं.. पांच साल बित गए उस बात को..पुलिस ने बताया के विश्वामित्र गलत कामों में फंस गया था.. जिस दिन वो लौटा था उससे हफ्तेभर पहले मुम्बई में एक बड़ी चोरी हुई थी.. हीरों की चोरी.. विश्वामित्र ने किसी साथी के साथ मिलकर उसे अंजाम दिया था.. और उस साथी को धोका देकर वो यहां भाग आया था.. उसी हीरों के लिए उस आदमी ने मेरे बेटे को मार दिया.. मार दिया उसे..’

आजी की आँखे नम हो गयी थी.. फिर उसने आँखे पोंछी और अपने भावनाओ पर काबू करते हुए आगे बोलने लगी..

‘फिर मैंने ये वाडा बेचने के लिए निकाला.. पचहत्तर हजार रूपये.. पता था मुझे एक न एक दिन मेरे बेटे का कातिल जरूर वापस आएगा.. करोड़ो के लिए वो इस वाडे को मुहमांगी कीमत देने के लिए तैयार हो जाएगा.. मुझे बस इन्तजार करना था एक ऐसे खरीददार का जो एक बुढ़िया के पुराने घर को हद से ज्यादा कीमत देने के लिए तैयार हो..’

शर्बत का खाली ग्लास पुनीत ने सामनेवाले टेबल पर रख दिया.. उसे कुछ अजीबसा महसूस हो रहा था.. उसका सर भारी हो रहा था.. होठ सुन्न हो रहे थे.. सब कुछ धुन्दला नजर आ रहा था.. वो एक तरफ झूल रहा था..

‘आपका शर्बत.. कड़वा.. कड़वा..’

 

वो कुछ बोल पाता उससे पहले वो जमीन पर गिर गया.. आजी बड़ी शान्ति से अपनी कुर्सी पर सर टिका कर बैठ गयी.. उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी.. बदला पूरा होने की मुस्कान..

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